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यूपी में बुआ ने बढ़ाई भतीजे के दिल की धड़कन


नई दिल्ली - उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की चुप्पी से राज्य में प्रस्तावित गठबंधन के घटक दलों की उलझनें बढ़ गई हैं। बसपा के ताजा रुख को देखते हुए सपा और रालोद अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने में जुट गये हैं। आगामी संसदीय चुनाव में राज्य के प्रमुख विपक्षी दल सपा और राष्ट्रीय लोकदल सियासी मजबूरी के चलते एक साथ खड़े रहना तय है, लेकिन गठबंधन में बसपा के शामिल होने का उन्हें बेसब्री से इंतजार है। यानी मायावती कुछ बोले तो गठबंधन की बात आगे बढ़े।


पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा के स्वाभाविक समर्थक (यादव) मतदाताओं के न होने से समाजवादी पार्टी कमजोर है। इस कमी को पूरा करने के लिए वह राष्ट्रीय लोकदल को साथ लेने की तैयारी में है। दरअसल, पश्चिम में सपा का समर्थक मुस्लिम मतदाता आखिरी वक्त में उसका साथ छोड़कर बसपा के खेमे में चला जाता है। उसे विश्वास है कि रालोद से बिदक गया जाट मतदाता इस बार उसके खेमे में लौट आयेगा। यह यकीन उसे कैराना चुनाव में मिली जीत से हो रहा है।

सपा के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक पश्चिमी क्षेत्र में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए समाजवादी पार्टी बूथ स्तरीय तैयारियों में जुटी है। प्रत्येक बूथ पर 10 समर्थकों की कमेटी का गठन किया गया है। पश्चिम के जिलों में जातिगत समीकरणों पर पूरा ध्यान दे रही है। पिछले संसदीय चुनाव में साथ छोड़कर भाजपा खेमा से जुड़ चुकी अति पिछड़ी जातियों को लुभाने के लिए सपा नेता पूरी ताकत झोंक रहे हैं। पश्चिमी क्षेत्र के ज्यादातर जिला संगठनों में मुस्लिम नेताओं को स्थान नहीं दिया गया है। उनकी जगह अति पिछड़ी जातियों के नेताओं को रखा गया है।

मेरठ, शामली और बागपत में जाट नेताओं को जिला संगठन में प्रमुख बनाया गया है तो मुजफ्फरनगर में बनिया और सहारनपुर में गूजर समुदाय के नेताओं को समायोजित किया गया है। यह करके पार्टी मुस्लिम परस्ती के आरोपों से बचना चाहती है।

दूसरी ओर रालोद की राजनीतिक मजबूरी यह है कि संसदीय व विधानसभा चुनाव में अपना हश्र देख लिया है। मुस्लिम मतदाताओं के साथ जाटों ने भी उससे मुंह मोड़ लिया था, लेकिन सपा के साथ रहने में रालोद के प्रति मुस्लिम मतदाताओं का भरोसा बढ़ सकता है।

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